(नागपत्री एक रहस्य-24)

इतने स्वागत सत्कार और शिष्यों की जमा भीड़, भक्तजनों का मंदिर में आचार्य वर के भी गुरु का आना सुन एक महोत्सव सा माहौल उस मंदिर में जान पड़ता था, गुरुजी ने शांतिपूर्वक सबको आशीर्वाद दिए, और शुभकामनाओं के साथ यथा योग्य वर प्राप्त कर सभी भक्तजन अपने अपने घर लौट गए। 

       तब आचार्य चित्रसेन जिन्होंने यह संपूर्ण व्यस्तता अपने गुरु जी के आगमन पर की थी, अपने गुरु के पास जा हाथ जोड़ कहने लगे, हे गुरुवर जितना मुझ से संभव हुआ, मैंने किया।




कृपया अपने शिष्य पर कृपा बनाए रखें, और ऐसा आशीर्वाद दे कि कोई भी भक्त यहां से खाली हाथ ना लौटे, कहते हुए उन्होंने परम्परानुसार अपने गुरु चरणों को स्पर्श कर,विश्राम गृह में चलने की अनुमति मांगी। 
                लेकिन गुरु जी के मन में तो जैसे कुछ और ही था, वे बोले, चित्रसेन थोड़ा विश्राम के साथ तुमसे वार्ता भी हो जाएगी, चलो उसके बाद सरोवर में स्नान कर ने भी जाना है। 



सुना है मंदिर की पूर्व दिशा में बड़ा ही सुंदर सरोवर है, क्या यह सच है ?कह कर उन्होंने चित्रसेन की और मुस्कुरा कर देखा, उनके मुंह से अचानक निकला, यह शब्द सुनकर आचार्य चित्रसेन चौंक पड़े और कहने लगे।
गुरुवर क्षमा करें, आपका कोई भी कथन मिथ्या नहीं हो सकता....
लेकिन मंदिर की पूर्व दिशा में मैंने आज तक कोई भी सरोवर नहीं देखा ,लेकिन होता तो अति उत्तम था। 


गुरुजी सिर्फ अच्छा शायद नहीं होता, ठीक है चलो कहकर विश्राम गृह में चले गए, वहां पहुंचकर गुरुजी ने चित्रसेन जी से पूछा, अच्छा चित्रसेन सच बताओ?? क्या तुम्हें याद है कि मैंने तुम्हें सबसे पहली शिक्षा क्या दी थी??
           चित्रसेन जी एक शिष्य थे, और शालीनता से उन्होंने जवाब दिया, गुरु जी मुझे भली-भांति याद है कि आपने मुझे प्रवेश से पूर्व ही सरोवर जल पर स्थित होकर खड़ा रहना और चलकर दिखाने के लिए कहा था, जो वास्तव में बिल्कुल असंभव था, लेकिन अभ्यास लगन और विश्वास और आपकी कृपा से मैंने प्रवेश से पूर्व ही उस असाध्य कार्य को सीखा जो बिल्कुल असंभव था और यह सब आपकी कृपा से ही संभव है। 




हां ठीक है, लेकिन यह तो बताओ मैंने तुम्हें जल पर ही खड़े रहने के लिए क्यों कहा?? क्या तुम इसका कारण जानते हो?? जी गुरु जी, जैसे आपने मुझे सिखाया की जल पर खड़ा रहने के लिए पहले विश्वास की प्रचुरता मन में होनी चाहिए, दूसरा इन सब के पश्चात भी मन स्थिर और पूर्ण संयमित होना चाहिए,  तब कहीं जाकर जल अपना व्यवहार बदल कर अपनी स्थिरता प्रदान करता है, जिस पर आसानी से खड़ा रहे या चला जा सकता हैं,
              बिल्कुल ठीक है, लेकिन कैसे?? आज तुम उस पहले पाठ को ही भूल गए हो, जानते हुए भी कि गुरु कभी भी विशेष सम्मान के भूखे नहीं होते, उन्हें सिर्फ अपने शिष्य के विश्वास और प्रेम ही जीत सकता है, बाकी सब तो बाहरी आडंबर है। 



लेकिन प्रातः से देखे जाने वाली तैयारियां सेवा सत्कार और यह भीड़ हम दोनों को अलग-अलग पंक्ति में लाकर खड़ी करती हैं, मैंने तो अपने शिष्य को एकाकार होना सिखाया, 
          लेकिन आचार्य पद गृहण कर लगता है, कि वह स्थिरता तो खो चुके हैं, जाओ मुझे थोड़ा विश्राम करने दो, उसके बाद फिर मिलेंगे, कहकर गुरुजी ने अचानक चित्रसेन जी की और से मुख मोड़ लिया। 




वाकई उनका हर कथन सत्य था, सच में आचार्य चित्रसेन जी के मन में कहीं ना कहीं अपने पद को लेकर और भक्तों की सेवा को देख, गुरु को विशेष सम्मान दिलाने का मन हुआ था, जिसमें कहीं ना कहीं अप्रत्यक्ष रूप से उनका अहंकार उभर आया था, और इसलिए गुरु जी शायद नाराज थे। 
                      लेकिन इससे मन की स्थिरता समाप्त हो जाए, यह तो संभव नहीं, सोचते हुए उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने प्रथम बात को पुनः दोहराएंगे, और अपने विश्राम गृह के पास स्थित छोटे कुंड के जल पर एक बार पुनः पूर्ण विश्वास के साथ उन्होंने अपने पांव बढ़ा दिए, लेकिन धड़ाम की आवाज के साथ इस बार वह पानी में गिर गए।




बड़ी लज्जा के साथ वे उठे, और अपने कक्ष में आकर ध्यान मग्न हो बैठे, ताकि आत्मग्लानि से मुक्ति पा सके, भला कैसे अपने जीवन का प्रथम अध्याय ही भूल गए? कैसे उन्होंने अपने आप पर माया को हावी होने का अधिकार दिया?? और क्यों भला आज इतने वर्षों बाद अपने गुरु से मिलने पर वह आत्म शांति का अनुभव नहीं हुआ??
                    उनके गुरु से मिलने और ज्ञान प्राप्त करने का वह कीमती समय उन्होंने व्यर्थ ही बाहरी आडंबरओं में गवां दिया।



मुझ पर नाराजगी गुरुजी की  जायज है, सजा का पात्र हुं मैं, मेरा यह सांसारिक जीवन व्यर्थ है, मैं भी गुरुजी के साथ उन पर्वत श्रेणियों में चला जाऊंगा, छोड़ दूंगा सब कुछ जो मुझे अपने गुरु से विलग करे। 
                   वह समय जो मैं गुरु सेवा में लगा सकता था, मैंने बाहरी दिखावे में लगाया, 



हे ईश्वर, क्षमा करना.... क्षमा करना..... कहते हुए उनके आंखों से लगातार अश्रु धारा बहने लगी, वे लगातार क्षमा प्रार्थना करते रहे, और धीरे-धीरे आंखों से निकलने वाले आंसूओ ने मन पर जमी उस परत को धो दिया, और उन्हें ऐसा स्पर्श हुआ जैसे शीतल हवाएं उन्हें स्पर्श कर किसी की उपस्थिति का आभास दे रही है।
           और अचानक उन्होंने प्रेम पूर्वक आंखें खोली, आंखें खोलते ही उन्होंने देखा संपूर्ण कक्ष परबैंगनी किरणों से आच्छादित था,  एक विशेष प्रकाश किरण संपूर्ण कक्ष में किसी विशेष आकृति का निर्माण कर रही थी, वह पूरा कक्ष बर्फ से शीतलता लेकर जा रहा था। 



देखते ही देखते उन्हें ऐसा लगा, जैसे कक्ष की स्थिति पूर्णरूपेण परिवर्तित हो गईं, चारों और बर्फ ही बर्फ, सामने ऊंचे पहाड़ जिनके शिखर नजर ना आते , हिमखंड की नदियां और ठीक वैसा ही जैसा उन्होंने मन में तय किया था, 
                  सन्यास लेने को लेकर तभी अचानक अपने सामने उन्होंने एक त्रिशूल धारण किए हुए नाग माता को देखा, जो उन्हें देख मुस्कुरा रही थी, उनके आसपास अनेकों नागकन्या उनकी सेवा में लगी थी , और नाग माता आसन पर बैठे अपने भक्तों को आशीर्वाद की मुद्रा में कहने लगी.....



हे चित्रसेन मैंने ही तुम्हारे गुरु को इस तुच्छ अहंकार की समाप्ति हेतू तुम्हारे पास भेजने की आज्ञा दी थी, अब सब कुछ ठीक है, लेकिन कथा अनुसार उनका शांतिपूर्वक अनुसरण करना।
              मैं जानती हूं कि विधान में एक बार फिर तुम्हारा अस्थिर मन तुम्हारे विश्वास को ठेस पहुंचायेगा, लेकिन जब ऐसा हो, तब जल मग्न की स्थिति में एक बार अपनी मां को याद करना, तुम्हारा कल्याण हो कहते हुए वे अंतर्ध्यान हो गई।



             और अचानक झटके के साथ चित्रसेन जी को ऐसा लगा, जैसे वे गहरी नींद से जागे हो, लेकिन तब भी कमरे की वह ठंडक स्पष्ट अनुभूति देती है, कि जो देखा और सुना वह पूर्णतः सत्य है,और उन्होंने मन ही मन माता को दर्शन हेतु प्रणाम कर धन्यवाद दिया ।


क्रमशः....

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